बिहार का ‘कट्टा कनेक्शन’: देसी हथियार से राजनीति तक, कैसे बना ‘कट्टा’ सियासत का सिंबल

बिहार की सियासी हवा में इन दिनों एक शब्द खूब गूंज रहा है—‘कट्टा’. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपनी रैलियों में इसका ज़िक्र करते हुए कहते हैं, “कट्टा, क्रूरता और कुशासन ही जंगलराज की पहचान है.” लेकिन असल सवाल ये है कि आखिर ये कट्टा है क्या और बिहार की राजनीति में इसका इतना बोलबाला क्यों है?
कट्टा कोई विदेशी पिस्तौल नहीं, बल्कि देसी हथियार है, जिसे गांवों में कारीगर रसोई या किराए के कमरे में तैयार कर लेते हैं. साइकिल के स्प्रिंग, पानी के पाइप या पुरानी गाड़ियों के लोहे से बना ये हथियार सस्ता और सुलभ होता है. एक गोली चलाने वाला ये देसी जुगाड़ अपराधियों की पहली पसंद बन गया क्योंकि इसकी कीमत केवल दो से आठ हजार रुपये तक होती है.
इसका असली घर है बिहार का मुंगेर, जहां बंदूक बनाने की परंपरा 18वीं सदी में नवाब मीर कासिम के ज़माने से शुरू हुई. अंग्रेजों से जंग के दौरान जब आधुनिक हथियारों की कमी थी, तब यहीं पहला कट्टा बना. आजादी के बाद यहां सरकारी फैक्टरियां बंद हुईं और वही कारीगर अवैध कारोबार में उतर गए.
1970-80 के दशक में बिहार की राजनीति बदली, जातीय सेनाओं और बाहुबलियों का दौर शुरू हुआ. सत्ता दिखाने का जरिया बना—कट्टा. चुनाव आते ही इसकी कीमत कई गुना बढ़ जाती. अब तो शादी-ब्याह में भी हवाई फायरिंग के लिए किराए पर कट्टे मिलते हैं.
मुंगेर के साथ नालंदा भी अब इसका हब बन चुका है. यहां “कट्टा क्वीन” रौनक बीवी जैसे नाम चर्चा में रहे हैं. पुलिस हर साल हजारों कट्टे बरामद करती है, फिर भी ये धंधा रुकता नहीं.
आज जब प्रधानमंत्री मोदी ‘कट्टा’ का ज़िक्र करते हैं, तो उनका इशारा 1990 के दशक के “जंगलराज” की तरफ होता है, जब अपराध और राजनीति एक-दूसरे से गले मिले थे. लेकिन सच्चाई ये भी है कि कट्टा सिर्फ हथियार नहीं, बल्कि बिहार की गरीबी, बेरोजगारी और ताकत की भूख का प्रतीक बन चुका है.






