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छत्तीसगढ़ में हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई…संभव है भाई…?

हिंदी दिवस पर छत्तीसगढ़ के लिए एक बड़ी खबर निकल कर सामने आई वो ए है कि अब यहां के मेडिकल स्टूडेंट भी हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई कर पाऐगे मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने हिन्दी दिवस पर बड़ी घोषणा करते हुए राज्य के सभी चिकित्सा महाविद्यालयों में हिन्दी में भी पढ़ाई शुरू करने की बात कही है। क्या हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई संभव है…क्या है इसके फायदे और क्या है इसकी चुनौतियां…
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मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि इसी साल के प्रथम सत्र याने 2024-25 में एमबीबीएस की पढ़ाई की सुविधा हिंदी में भी उपलब्ध होगी, इसके लिए छात्र छात्राओं की संख्या अनुरूप आवश्यक पुस्तक उपलब्ध कराने के निर्देश स्वास्थ्य विभाग को दिए गए हैं। सीएम ने कहा कि पीएम मोदी के मंशा के अनुरुप हम हिंदी में चिकित्सा शिक्षा उपलब्ध कराने जा रहे हैं आईए पहले सून लेते है सीएम साय ने क्या कहा

हिंदी में मेडिकल की शिक्षा देने वाला मध्यप्रदेश पहला राज्य था जहां तत्कालिन शिवराज सिंह की सरकार ने 2022 में हिंदी में मेडिकल पढ़ाई का ऐलान किया था बात करे छत्तीसगढ़ की तो यह देश में हिंदी में पढ़ाई करवाने वाला देश का दुसरा राज्य बन जाऐगा हालाकि बिहार और उत्तरप्रदेश भी इस दिशा में आगे बढ़ रहा है राज्य सरकारो द्वारा हाल के इस तरह की पहल के पीछे है- नई शिक्षा नीति. राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में कहा गया है कि छात्रों को शिक्षा उनकी मातृभाषा में दिलाई जाए. इसमें उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा अंग्रेजी के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं में भी मुहैया कराए जाने की बात कही गई है. ऐसे में मेडिकल के कोर्स को हिंदी में ढालने का काम शुरू हो रहा है. मकसद यही है कि इससे पूरी हिंदी-पट्टी और ग्रामीण बैकग्राउंड से आने वाले छात्रों के लिए अवसर के नए दरवाजे खुल सकेंगे. हालांकि विषय विशेषज्ञ डाक्टरों और आईआईएम के सदस्यों का मानना है कि छत्तीसगढ़ सरकार का यह निर्णय काफी जल्दी में लिया गया निर्णय होगा, खासकर मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में करवाना काफी चुनौतियों से भरा है इनका मानना है कि फिलहाल तो छोड़िए निकट भविष्य में हिंदी माध्यम से मेडिकल की पढ़ाई भारत में हो पाना संभव नहीं है

मेडिकल स्टूडेंट की माने तो मेडिकल की और एमबीबीएस की पढ़ाई एक नॉर्मल पढ़ाई से अलग तरीके की पढ़ाई होती है प्रोफेशनल कोर्स की पढ़ाई एक नॉर्मल एकेडमिक कोर्स की पढ़ाई से थोड़ी कठिन होती है। और जो अच्छी-अच्छी बुक्स होती है वह सब ज्यादातर इंग्लिश फॉरेन राइटर की होती है। और जो बच्चा इस कठिन एग्जाम को पास करके मेडिकल कॉलेज में जब एडमिशन लेता है तो उसके लिए इन बुक्स को पढ़ना ज्यादा मुश्किल नहीं होता है शुरू में जरूर थोड़ी बहुत दिक्कत है आती है बाद में उसको इंग्लिश में ही पढ़ने की आदत हो जाती है। और जो विद्यार्थी अगर मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेता है तो वह उसके लिए इतना ज्यादा मुश्किल नहीं होता है।

अब आईए जानते है कि हिंदी में मेडिकल के पढ़ाई के क्या क्या फायदे हो सकते है ….मेडिकल की किताबें हिंदी में आ जाने से उन छात्रों का हौसला बढ़ेगा, जिन्हें अंग्रेजी माध्यम की किताबें बोझ जैसी लगती हैं. कई छात्र ऐसे होते हैं, जिन्हें सब्जेक्ट मैटर समझने में कोई दिक्कत नहीं होती. इन्हें बस अंग्रेजी में लिखे भारी-भरकम मेडिकल टर्म और घुमावदार लाइनों से दिक्कत होती है. अगर मेडिकल टर्म या शरीर के अंगों के प्रचलित नामों को जस का तस छोड़ दिया जाए और बाकी बातों को हिंदी में समझाकर लिख दिया जाए, तो कई छात्रों को फायदा हो सकता है.

सरकार की योजना भी यही है कि अंग्रेजी में लिखी किताबों का पूरा का पूरा हिंदी में अनुवाद नहीं किया जाएगा. ऐसा नहीं होगा कि लिवर को ‘यकृत’, किडनी को ‘गुर्दा’, लंग को ‘फेफड़ा’ या ‘फुफ्फुस’, एनीमिया को ‘रक्ताल्पता’, मेटाबॉलिज्म को ‘उपापचय’ लिखा जाएगा. अगर ऐसा लिखा जाने लगा, तो चीजें सुलझने की जगह और उलझती चली जाएंगी. इसलिए हर किसी की जुबान पर चढ़ चुके अंग्रेजी शब्दों को उसी रूप में लिखा जाएगा, बस उसकी लिपि देवनागरी कर दी जाएगी. जहां कहीं भी जरूरी होगा, ब्रैकेट में अंग्रेजी के शब्द रोमन लिपि में भी लिखे होंगे…..जरूरत इस बात की है कि अंग्रेजी मीडियम की जानदार किताबों का हिंदी अनुवाद भी शानदार तरीके से किया जाए. केवल मशीनी ट्रांसलेशन से फायदा कम, नुकसान ज्यादा होगा. मुमकिन है कि अपनी भाषा में पढ़ने-लिखने और बोलने का मौका मिलने पर मेडिकल के छात्रों पर मानसिक दबाव भी काफी कम हो जाए. कई छात्रों को तो केवल अंग्रेजी की दिक्कत की वजह से कोर्स को बीच में छोड़ना पड़ जाता है……तर्क यह भी है कि दुनिया के कई देशों में पहले से ही मेडिकल की पढ़ाई वहां की मातृभाषा में कराई जा रही है. इनमें जापान, चीन, रूस, फ्रांस, किर्गिस्तान, फिलीपींस जैसे देशों के नाम गिनाए जा रहे हैं……एक संभावित फायदा यह है कि हिंदी माध्यम से पढ़े-लिखे डॉक्टर हिंदी पट्टी के ग्रामीण इलाकों के मरीजों से भी अच्छी तरह जुड़ाव महसूस कर सकेंगे. उनकी बातें ठीक से समझेंगे, तकलीफ ठीक से समझेंगे, तो इलाज करने में भी आसानी हो जाएगी.

अब बात करते है इसपे आने वाली चुनौतिया कि तो चुनौतियां भी कम नहीं यह तय है कि छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने एक क्रांतिकारी कदम उठाया है. लेकिन रातोंरात पूरा सीन बदलने की उम्मीद बिल्कुल नहीं की जा सकती. अभी एवरेस्ट पर चढ़ने का इरादा किया गया है, शुरुआती कदम उठाए गए हैं, लेकिन आगे आने वाली चुनौतियों से पार पाना बाकी है. इस बीच डाक्टरों कि सबसे बड़ी चिंता यह है कि हिंदी माध्यम से पढ़ाई करने वाला डॉक्टर कहीं ‘लोकलाइज्ड’ होकर न रह जाए…. जिस तरह एमबीबीएस के लिए एंट्रेंस टेस्ट पास करना होता है, उसी तरह पीजी कोर्स के लिए भी भारी-भरकम परीक्षा पास करनी होती है. देशभर में पीजी कोर्स के लिए सीटें भी सीमित ही हैं. ऐसे में हिंदी माध्यम से एमबीबीएस करने वाले को अगर दक्षिण भारत के किसी कॉलेज में दाखिला लेना पड़ गया, तो उनकी आगे की पढ़ाई किस भाषा में होगी? …….हिंदी, अंग्रेजी, कन्नड़, तमिल, मलयालम या कुछ और?….. दक्षिण के राज्य पहले से ही आरोप लगाते रहे हैं कि उन पर हिंदी थोपी जा रही है. हिंदी मीडियम से पढ़े डॉक्टर एमबीबीएस की पढ़ाई के बाद फेलोशिप, रिसर्च या नौकरी के लिए विदेश कैसे जा सकेंगे? आशंका यह है कि कहीं हिंदी उन्हें एक खास भौगोलिक सीमा में बांध न दे. जो अंग्रेजी के पक्ष में हैं, उनका भी अपना तर्क है. इनका कहना है कि अभी मेडिकल का सिलेबस पूरी दुनिया में एक जैसा है, क्योंकि मानव शरीर की रचना एक जैसी ही है. इस वजह से इसका मीडियम भी सबके लिए अंग्रेजी ही रहे, तो पूरी दुनिया को सहूलियत होगी. हिंदी मीडियम वाले डॉक्टर को किसी विदेशी एक्सपर्ट के सेमिनार में जाकर नई चीजों को सुनने-समझने में कठिनाई होगी. यह समस्या तभी दूर होगी, जब हिंदी मीडियम वाले खुद ही एक्सपर्ट न बन जाएं.
सबसे बड़ी बात कि पूरा मेडिकल सेक्टर बड़ी तेजी से बदल रहा है. हर रोज नई-नई रिसर्च, नई-नई जानकारियां सामने आ रही हैं. हाई टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है और पूरा सिस्टम तेजी से अपडेट हो रहा है. ये सब कुछ ‘ग्लोबल लैंग्वेज’ अंग्रेजी में हो रहा है. ऐसे में हिंदी मीडियम वालों से बड़ी हिम्मत और सब्र रखे जाने की दरकार होगी.

कुल मिलाकर, बात वही है. हर नई चीज को अपनाने में शुरू-शुरू में दिक्कत होती है. लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हारकर हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाया जाए. दुनिया देख चुकी है कि पहली बार एवरेस्ट पर फतह करने वालों को किन-किन मुसीबतों से जूझना पड़ा. आगे चलकर एवरेस्ट पर पर्वतारोहियों की आवाजाही इतनी बढ़ गई कि कई टीमों को तो वहां सिर्फ कचरा बीनने के लिए भेजना पड़ा! मतलब हिंदी मीडियम वालों को अपने कदम मजबूती से टिकाए रखने की जरूरत है.फिलहाल सीएम साय की घोषणा के बाद इस मुद्दे पर प्रदेश के लोगो के अपने अपने तर्क दिए जाने लगे है और इस पर मुद्दे पर राजनीति भी होना लाजमी ही है जो कि आने वाले कुछ दिनों में हमें देखने सूनने सोशल मीडिया में पढ़ने को मिलता रहेगा, इन सब के बीच छत्तीसगढ़ सरकार का यह फैसला कितना असरकारक और कारगार सिद्ध होगी इसका जवाब भविष्य में छिपा हुआ है

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