बस्तर की अनुठी परंपरा, देवी की आंखे न हो खराब इसलिए आदिवासी चढ़ाते है चश्मा…देखे अनुठी परंपरा
बस्तर – मन्नत पूरी होने और नेत्र रोग दूर करने के लिए कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले कोटमसर गांव की देवी पर चौंकाने वाला चढ़ावा चश्मों का है । ढेरों चढ़े चश्मों को देखकर लगता है कि नेत्र विशेषज्ञों का स्थान जैसे देवी ने ले लिया हो। देवी ईश्वर का रूप है, लिहाजा आदिवासी संस्कृति में उन्हें भी आम लोगों की तरह आंख की बीमारियां और पीड़ा हो सकती है । इसी सोच को लेकर कोटमसर गांव की प्रमुख देवी बास्ताबुंदिन को नेत्र रोग से बचाने को लेकर उन्हें रंगीन चश्मे अर्पित किए जाते हैं । क्योंकि उनकी आंखें निरोग और निर्मल रहेंगी तभी भक्तों पर उनकी शुभ दृष्टि और आशीर्वाद बना रहेगा । इसके साथ ही यहां आए भक्तों की मन्नतों और मुरादों के पूरा होने पर भी चश्मे चढ़ाने की अनूठी परंपरा है। अपनी भू-गर्भीय गुफाओं के लिए विश्व भर में प्रसिध्द कोटमसर कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान के बीच बसा वनग्राम है। यहां के कोटवारपारा में धुरवा जाति की आराध्य बास्ताबुंदीन देवी का मेला प्रत्येक 3 साल में एक बार लगता है। इस मेले में आसपास के 30 गांवों के ग्रामीण आते हैं। देवी को परंपरागत रूप से पूजन सामग्री के अलावा क्षमता के अनुरूप बकरा, मुर्गा, बतख और अंडा भी चढ़ाया जाता है, लेकिन इन सबके बीच आकर्षण होता है चश्मे की चढ़ौती का। इलाके के ग्रामीणों में वर्षों पुरानी मान्यता है कि देवी के सामने चश्मा अर्पित करने पर न केवल नेत्र रोग, बल्कि अनेक बीमारियों के साथ समस्याओं का निवारण भी हो जाता है। सैकड़ों साल पुरानी इस आस्था या अंधश्रध्दा का दौर आज भी बरकरार है। आदिवासी आज भी प्रगतिशील और उन्नत संसाधनों के बावजूद अपनी समस्याओं का निदान पाने स्थानीय देवी-देवताओं, सिरहा-बैगा, गुनिया के पास जाकर ही संतुष्टि का एहसास कर पाते हैं।
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देवी बास्ताबुंदीन के मेले में पहले दिन विभिन्न परगनों से आए देवी-देवताओं का स्वागत और पूजा की जाती है। देवगुड़ी के चारों ओर नगाड़ों, घंटियों का नाद गूंजता रहता है। सिरहा, बैगा और लंगूर बने लोग दैवीय स्थलों के सामने झूले में बैठकर ग्रामीणों को आशीष देते हैं। जिन पर देवी-देवता की सवारी आती है, वे परस्पर गले मिलते और झूमते-नाचते हैं। अलग-अलग परगनों से आई महिलाएं अपने साथ लांदा, सल्फी, महुए की शराब और सुराम लेकर अलग बैठती हैं। जहां से इन्हें खरीदकर ग्रामीण पहले देवी को अर्पित करते हैं, फिर प्रसाद स्वरूप स्वयं पीते हैं। मान्यता यह भी है कि जिस देवी से मन्नत मांगी जाती है, उसकी और देवी की आंखों में चावल का लेप भी लगाया जाता है।
बस्तर के आदिवासियों के बीच प्रचलित कई विधान और रीति-रिवाज निःसंदेह अनुकरणीय कहे जा सकते हैं। भगवान की भी आंख है और उसमें भी नेत्र रोग लग सकता है। देवी को साफ-साफ दिखे, इसलिए चश्मे चढ़ाए जाते हैं। बस्तर के जनजातीय समाज में देवी-देवताओं को परिवार का अंग माना जाता है और उन्हें संतुष्ट करने के लिए उपहार अर्पित करने की भी प्रथा है। इनके पुजारी अपनी विविध शैलियों से पूजा-अर्चना और मनौति की परंपराएं पूरी करते हैं।
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