बस्तर दशहरा : बस्तर की सांस्कृतिक धरोहर और भक्ति का 75-दिनों का महापर्व

बस्तर दशहरा छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में मनाया जाने वाला एक अनोखा और विश्वविख्यात त्योहार है। इस पर्व की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह दशहरा पूरे 75 दिनों तक चलता है, जो इसे दुनिया के सबसे लंबे दशहरा त्योहारों में गिनता है। बस्तर दशहरा केवल रावण वध या रामायण की कथा पर आधारित नहीं है, बल्कि यह माँ दंतेश्वरी की आराधना, जनजातीय परंपराओं एवं तांत्रिक अनुष्ठानों का संगम है।
इतिहास और उत्पत्ति
बस्तर दशहरा की परंपरा 13वीं शताब्दी में बस्तर के राजा पुरुषोत्तम देव द्वारा शुरू की गई मानी जाती है। मान्यता है कि राजा ने मां दंतेश्वरी के दर्शन किए और राज्य की रक्षा के लिए दशहरा पर्व मनाने का संकल्प लिया। यह पर्व राजा की शक्तिपूजा और जनजातीय समुदायों की सौहार्दपूर्ण भागीदारी से पल-पल विकसित होता रहा।

परंपरागत महत्व
भारत में दशहरा आमतौर पर राम-रावण युद्ध की विजय के रूप में मनाया जाता है, लेकिन बस्तर दशहरा में ऐसा कोई तत्व नहीं है। यहाँ रावण मारा नहीं जाता, बल्कि इस पर्व में मां दंतेश्वरी की पूजा, जंगल की रक्षा, और जनजातीय संस्कृति की महत्ता को दर्शाया जाता है।
पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या से होती है, जब जंगल से लकड़ी लेकर रथ बनाने की परंपरा निभाई जाती है, जिसे पट जात्रा कहा जाता है। इसके बाद 13 प्रमुख पारंपरिक चरण होते हैं, जिनमें काछिन गादी, कुम्हार जात्रा, रथारोहण, मावली परघाव और बहराम देव विदाई शामिल हैं।

रथ यात्रा और जनभागीदारी
बस्तर दशहरा का महापर्व रथ यात्रा के बिना अधूरा है। यह विशाल लकड़ी का रथ हजारों लोगों की मेहनत से रस्सियों के द्वारा खींचा जाता है। इसमें मशीन या जानवरों का उपयोग नहीं किया जाता। यह रथ यात्रा बस्तर के नगर में घूमती है और स्थानीय लोगों की आस्था और एकता का प्रतीक बन जाती है।
पूजाप्रेस
बस्तर दशहरा मंदिर पूजा से कहीं अधिक प्रकृति पूजा, तांत्रिक संस्कार और जनजातीय अनुष्ठानों का पर्व है। यहां पूजा ब्राह्मणों द्वारा नहीं, बल्कि जनजातीय पुजारियों (गुड़िया, चला, मांझी) द्वारा की जाती है। रात के समय होने वाले गुप्त तांत्रिक अनुष्ठान इसे और भी रहस्यमयी और भव्य बनाते हैं। माना जाता है कि इन अनुष्ठानों के माध्यम से देवी दंतेश्वरी और अन्य शक्तियों की प्रसन्नता हासिल कर बस्तर क्षेत्र की रक्षा की जाती है।

मावली देवी और प्राकृतिक रहस्य
बस्तर दशहरा में देवी दंतेश्वरी के अतिरिक्त एक और देवी मावली की भी पूजा की जाती है। मावली देवी को जंगल से लेकर नगर में लाया जाता है, जो प्रकृति और जंगल के प्रति आदिवासी जनमानस के गहरे संबंध को दर्शाता है। यह परंपरा बस्तर की संस्कृति को प्रकृति के साथ जोड़ती है और पर्यावरण संरक्षण का भी संकेत देती है।
सांस्कृतिक महत्व और आधुनिकता
बस्तर दशहरा केवल धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि यह सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक विरासत और लोकतांत्रिक भावना का उत्सव है। इसमें हर जाति, जनजाति और समुदाय की भागीदारी होती है। यहां तक कि बस्तर के राजा भी इस पर्व में ‘सेवक’ के रूप में हिस्सा लेते हैं, जो पारंपरिक जनतांत्रिक प्रणाली की प्रस्तुति है।
इसमे लोक नृत्य, पारंपरिक गीत-संगीत, वाद्य यंत्रों की धुनें, झांकी और आदिवासी कला का जीवंत प्रदर्शन होता है। बस्तर दशहरा देश-विदेश के पर्यटकों को अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत से आकर्षित करता है।
समापन
बस्तर दशहरा भारतीय संस्कृति का एक अनूठा और अद्भुत उत्सव है, जो न केवल देवी-पूजा का, बल्कि प्रकृति, लोक कला, तांत्रिक संस्कार, और जनजातीय एकता का प्रतीक है। यह त्योहार 75 दिनों तक चलता है और इसकी श्रद्धा और भक्ति स्थानीय जीवन का अभिन्न हिस्सा है, जो बस्तर की आत्मा से जुड़ा हुआ है।
बस्तर दशहरा की मुख्य परंपराएं इनमें शामिल हैं:
पट जात्रा: हरेली अमावस्या के दिन जंगल से लकड़ी लाने की परंपरा, जो देवी के रथ के निर्माण के लिए होती है।
काछिन गादी स्थापना: राज परिवार द्वारा देवी के प्रतिनिधि को गद्दी सौंपना।
कुम्हार जात्रा: रथ निर्माण की शुरुआत।
रथारोहण: देवी के विशाल लकड़ी रथ को सजाकर हजारों लोगों द्वारा रस्सियों से खींचते हुए नगर में यात्रा निकालना।
मावली परघाव: जंगल से देवी मावली की मूर्ति को लाकर नगर में स्थापित करना।
बहराम देव विदाई: दशहरा पर्व का समापन अनुष्ठान।
अन्य प्रमुख बातें:
पूजा आदिवासी पुजारियों (गुड़िया, मांझी, चालकी) द्वारा की जाती है, न कि ब्राह्मणों द्वारा।
रात्रि में गुप्त तांत्रिक अनुष्ठान होते हैं, जिनमें बाहरी लोग शामिल नहीं होते।
देवी दंतेश्वरी को राज्य की कुलदेवी माना जाता है, साथ ही मावली देवी की भी पूजा की जाती है।
दशहरा पर्व सामाजिक समरसता, जनजातीय संस्कृति, लोक नृत्यों, गीतों, और वाद्य यंत्रों के प्रदर्शन का भी अवसर होता है।
बस्तर दशहरा में बस्तर के राजा भी ‘सेवक’ की भूमिका निभाते हैं, जो जनतांत्रिक परंपरा को दर्शाता है।
दशहरा के अंत में मुरिया दरबार (बस्तर की पारंपरिक संसद) आयोजित होती है, जहां सामाजिक मुद्दों पर चर्चा की जाती है।
इस तरह, बस्तर दशहरा न केवल छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक गर्व है, बल्कि पूरे भारत का एक अमूल्य त्योहार भी है जो हमारी विविध सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध करता है