कांतारा के पंजुर्ली और गुलेगा: सच्चे देवताओं की कहानी, जानें कर्नाटक की 5000 साल पुरानी परंपरा!

दक्षिण भारत की कई कम बजट की फिल्में अपनी गहरी पटकथा और सांस्कृतिक कहानियों के दम पर वैश्विक स्तर पर पहचान बना रही हैं। इन्हीं में से एक है साल 2022 में रिलीज हुई ऋषभ शेट्टी की फिल्म कांतारा (Kantara), जो आज भी अपनी अनोखी कहानी और स्क्रीनप्ले को लेकर चर्चा में है।
इस फिल्म ने दर्शकों को केवल मनोरंजन ही नहीं, बल्कि तटीय कर्नाटक की हजारों वर्षों पुरानी तुरुनाडी परंपरा और उसमें पूजे जाने वाले संरक्षक देवताओं – पंजुर्ली और गुलेगा – से भी परिचित कराया। बहुत से लोग इन्हें काल्पनिक मान सकते हैं, लेकिन स्थानीय मान्यताओं में ये आत्माएं वास्तविक मानी जाती हैं और भूत पूजा का हिस्सा हैं। हालांकि नाम में “भूत” शब्द है, लेकिन यह किसी बुरी आत्मा से नहीं, बल्कि संरक्षण और न्याय से जुड़ी परंपरा है।
पंजुर्ली: प्रेम से जन्मा वनरक्षक
कथाओं के अनुसार, कैलाश पर्वत पर एक जंगली सूअर की मृत्यु के बाद उसका बच्चा अनाथ हो गया। देवी पार्वती ने दया और करुणा से उस बच्चे को अपनाकर उसे पंजुर्ली बना दिया। भगवान शिव इस पर क्रोधित होकर उसे पृथ्वी पर भेज देते हैं, लेकिन तब तक वह सूअर पार्वती के आशीर्वाद से जंगलों और प्रकृति का दैवीय रक्षक बन चुका था। आज भी यह माना जाता है कि जो लोग वनों और प्रकृति का सम्मान करते हैं, उन्हें पंजुर्ली का आशीर्वाद मिलता है।
गुलेगा: क्रोध से जन्मा न्याय का देवता
जहां पंजुर्ली का उद्भव प्रेम से हुआ, वहीं गुलेगा का जन्म भगवान शिव के क्रोध से हुआ था। पौराणिक कथा के अनुसार, ब्रह्मांडीय विनाश के समय भगवान शिव द्वारा फेंके गए एक पत्थर से गुलेगा की उत्पत्ति हुई। गुलेगा को न्याय और प्रतिशोध का अवतार माना जाता है। भगवान विष्णु ने उसे यह आशीर्वाद दिया था कि जहां भी अन्याय होगा, वहां गुलेगा प्रकट होंगे।
संतुलन के रक्षक आत्माएं
पंजुर्ली और गुलेगा मिलकर संतुलन बनाए रखते हैं। पंजुर्ली धरती और जंगलों की रक्षा करते हैं, जबकि गुलेगा न्याय सुनिश्चित करते हैं। दोनों मिलकर यह संदेश देते हैं कि प्रकृति और मानवता के बीच संतुलन ही समृद्ध जीवन की कुंजी है।
कांतारा: सिर्फ फिल्म नहीं, जीवित परंपरा
‘कांतारा’ (Kantara) सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि कर्नाटक की हजारों वर्षों पुरानी ‘भूत कोला’ परंपरा और उसमें पूजे जाने वाले वास्तविक देवताओं – पंजुर्ली और गुलेगा – की झलक है। कोई इन्हें काल्पनिक मान सकता है, लेकिन कर्नाटक की तुरुनाडु संस्कृति में ये आत्माएं आज भी लोगों की आस्था और परंपरा का हिस्सा हैं।
पंजुर्ली माँ पार्वती के प्रेम से उत्पन्न हुए, जो जंगल और धरती की रक्षा करते हैं। वहीं गुलेगा भगवान शिव के क्रोध से जन्मे न्याय और प्रतिशोध के प्रतीक हैं। दोनों मिलकर प्रकृति और मानवता के संतुलन की रक्षा करते हैं। भूत कोला नृत्य और अनुष्ठान आज भी पीढ़ी दर पीढ़ी इस संस्कृति को जीवंत रखते हैं। फिल्म ‘कांतारा’ ने भारत ही नहीं, दुनियाभर के दर्शकों को इस पौराणिक परंपरा से जोड़ा है, जो आधुनिकता में भी प्रासंगिक और प्रेरणादायक है।
इसलिए जब भी आप कांतारा (Kantara), देखें, याद रखें कि यह केवल एक सिनेमाई अनुभव नहीं, बल्कि उन देवताओं की झलक है – पंजुर्ली और गुलेगा – जो सदियों से मानवता की निगरानी और सुरक्षा कर रहे हैं।