सांसद कहलाऐंगे भूपेश बघेल…? मोदी और राम के सहारे पार लगाऐंगे संतोष पांडे…देखे ‘चुनाव चालीसा’
वो सीट जिसने रमन सिंह की किस्मत बदल दी थी, रमन के अच्छे दिन आए थे. क्या वही सीट अब भूपेश बघेल के भी अच्छे दिन लाएगी. वो सीट जो बीजेपी का गढ़ बन गई, राजनांदगांव जिसे राजनीतिक एक्सपर्ट्स छत्तीसगढ़ बीजेपी का गांव भी कहते हैं. इस सीट पर अब छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल लोकसभा के लिए मैदान में है वैसे तो भूपेश बघेल एक बार सीएम बन चुके हैं लेकिन इसी सीट से वो एक बार फिर अपने अच्छे दिन की तलाश में हैं.1 998 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद इसी सीट से लोकसभा चुनाव में मिली जीत ने रमन सिंह के अच्छे दिन वापस आए थे. यह सीट कई कारणों से चर्चा में रही है. इसी सीट से बीजेपी सांसद प्रदीप गांधी ‘ऑपरेशन दुर्योधन’ में संसद में सवाल पूछने के जवाब में पैसे मांगते हुए कैमरे में कैद हुए थे. महुआ मोइत्रा की तरह उन्हें भी निष्कासित किया गया था. लेकिन इस सीट का इतिहास क्या है? मतदाताओं का लेखा-जोखा क्या है? कौन कब-कब जीता है, इसे भी जानना बेहद जरुरी है
देखे चुनाव चालीसा
छत्तीसगढ़ की कुल 11 लोकसभा सीटों में से एक सीट राजनांदगांव सबसे हॉट सीटों में से एक है. राजनांदगांव लोकसभा सीट साल 1957 में अस्तित्व में आई. यहां पहली बार हुए चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी खैरागढ़ रियासत के राजा वीरेंद्र बहादुर सिंह सांसद चुने गए. इस सीट पर साल 1957 से अब तक हुए 17 चुनाव में नौ बार कांग्रेस, आठ बार जनता पार्टी और भाजपा ने जीत दर्ज की. यहां राजपरिवार से दूर जाने के बाद 1999 के बाद कांग्रेस की वापसी नहीं हो पाई है. इस बार बीजेपी ने सांसद संतोष पांडेय तो कांग्रेस ने पूर्व सीएम भूपेश बघेल को मैदान में उतारा है. भूपेश बघेल के चुनाव लड़ने से राजनांदगांव की सीट भी हॉट सीट हो गई है। हालांकि खुद भूपेश बघेल कह चुके हैं कि वे पूरे प्रदेश में पार्टी के लिए काम करना चाहते थे, लेकिन पार्टी ने जो फैसला लिया है, उसके मुताबिक काम करेंगे। यानी कहीं न कहीं वे भी इस समय केंद्र की राजनीति में नहीं जाना चाहते थे, लेकिन पार्टी ने उन्हें दिल्ली बुलाने का फैसला किया है।
देखे चुनाव चालीसा
1957 और 1962 में हुए पहले दो चुनाव में खैरागढ़ राजपरिवार के राजा वीरेंद्र बहादुर सिंह ने कांग्रेस के टिकट पर जीत हासिल की थीं. 1967 में कांग्रेस ने राजपरिवार से ही पद्मावती देवी को टिकट दिया, जिन्हें भी यहां के मतदाताओं ने चुनकर लोकसभा भेजा. 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने पद्मावती देवी की जगह मुंबई के बिजनेसमैन रामसहाय पांडे को टिकट दिया. टिकट नहीं मिलने से ख़फ़ा पद्मावती देवी ने एनसीओ पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा, लेकिन इंदिरा लहर के सामने वो टिक नहीं सकीं. 1971 में चुनाव जीतने वाले रामसहाय पांडे को आपातकाल विरोधी लहर में पटखनी मिली. उन्हें जनता पार्टी के मदन तिवारी ने शिकस्त दी थी.1980 और 1984 में एक बार फिर कांग्रेस ने राजपरिवार पर भरोसा जताते हुए शिवेंद्र बहादुर सिंह को उम्मीदवार बनाया. दोनों ही चुनाव में मतदाताओं ने राजपरिवार पर भरोसा जताया.1989 में शिवेंद्र बहादुर सिंह जीत की हैट्रिक से चूक गए. उन्हें बीजेपी के धर्मपाल सिंह गुप्ता ने पराजित किया था. 1991 में कांग्रेस ने एक बार फिर शिवेंद्र बहादुर सिंह पर भरोसा जताया और मतदाताओं ने उन्हें दो साल के गैप के बाद फिर लोकसभा भेज दिया. 1996 में शिवेंद्र सिंह ने पांचवी बार यहां से चुनाव लड़ा. वाजपेयी लहर में मतदाताओं ने राजपरिवार के बजाए बीजेपी के अशोक शर्मा पर अपनी मुहर लगा दी. अगले दो मध्यावधि चुनाव बेहद दिलचस्प रहे. पहले 1998 में कांग्रेस ने दो बार के मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा पर दांव लगाया. सीनियर कांग्रेस लीडर ने इस चुनाव में बीजेपी के तत्कालीन सांसद अशोक वर्मा को 52 हज़ार से ज़्यादा वोट के अन्तर से पराजित किया था.
13 महीने की वाजपेयी सरकार गिरने के बाद 1999 में एक बार फिर चुनाव हुआ. ये चुनाव रमन सिंह के लिए लाइफ चेजिंग मोमेंट बन गया. कुछ महीने पहले विधानसभा चुनाव हराने वाले रमन सिंह को पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया. रमन सिंह के सामने कांग्रेस के क़द्दावर नेता मोतीलाल बोरा थे, जिन्हें 26 हज़ार से ज़्यादा वोटों से हराकर न केवल रमन सिंह लोकसभा पहुँचे, बल्कि वाजपेयी सरकार में मंत्री भी बने. इसके बाद यह सीट कांग्रेस के हाथ से फिसल गई. 2007 में हुए लोकसभा उपचुनाव को छोड़कर हर चुनाव में यहाँ बीजेपी ने जीत हासिल की. 2004 में India Shining भले ही नहीं चल पाया हो और देश में कांग्रेस की सरकार बनी, लेकिन राजनांदगांव में Shining बीजेपी की ही रही. बीजेपी के प्रदीप गांधी इस सीट से चुने गए. साल भर बाद ही प्रदीप गांधी कोबरा पोस्ट के स्टिंग में संसद में सवाल पूछने के मामले में ‘रिश्वत’ लेते कैमरे में कैद हो गए. इसके बाद प्रदीप गांधी सहित 11 सांसदों को निष्कासित किया गया था, जिसमें बीजेपी के 6 सांसद थे.2007 में हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने एक बार फिर राजपरिवार के देवव्रत सिंह पर दांव लगाया. वो राजपरिवार से चुने गए सातवें सांसद थे. उन्होंने इस चुनाव में बीजेपी के लीलाराम भोजवानी को हराया था. 2009 में देश में एक बार फिर मनमोहन सिंह सरकार बनी, लेकिन राजनांदगांव में फिर कमल खिला.बीजेपी के मधुसूदन यादव ने उस समय के मौजूदा सांसद कांग्रेस के देवव्रत सिंह को करारी शिकस्त दी. उनकी जीत का अंतर क़रीब एक लाख 20 हजार वोट था. बीजेपी में मोदी लहर में भी साल 2014 और 2019 में उम्मीदवार बदलने का सिलसिला जारी रखा.2014 में तत्कालीन सांसद मधुसूदन यादव का टिकट कट कर रमन सिंह के बेटे अभिषेक सिंह को और 2019 में अभिषेक सिंह का टिकट काटकर संतोष पांडेय को उम्मीदवार बनाया.अभिषेक सिंह में 2014 में कांग्रेस के कमलेश्वर वर्मा दो लाख 35 हजार से ज्यादा वोटों से जबकि 2019 में संतोष पांडे ने कांग्रेस के भोलाराम साहू को एक लाख 11 हजार वोट से परास्त किया था.
देखे चुनाव चालीसा
राजनांदगांव लोकसभा क्षेत्र में गर देखा जाए तो विधानसभा सीटों के हिसाब से कांग्रेस के लिए मजबूत सीट है। राजनांदगांव में ओबीसी की संख्या ज्यादा है। भूपेश बघेल ओबीसी वर्ग से आते हैं। भाजपा से ब्राह्मण कैंडिडेट और वर्तमान सांसद संतोष पांडेय मैदान में हैं। संतोष पांडेय के लिए निश्चित रूप से भूपेश के उतरने से चुनौती जरुर बढ़ गई होगी अब देखना ये है कि मोदी का चेहरा और राम का नाम संतोष पांडेय के काम आएगा की नही… वे अग्रेसिव लीडर हैं। बस्तर में धर्मांतरण के मुद्दे पर भी उन्होंने मोर्चा संभाला था, लेकिन राजनांदगांव में भूपेश बघेल के आने से उन्हें थोड़ी परेशानी हो सकती है।
दूसरा तरफ नजर डाले तो राजनांदगांव से ही पूर्व मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह भी विधायक हैं। डा. रमन सिंह भी अपने बेटे अभिषेक सिंह को राजनांदगांव से चुनाव लड़ाना चाहते थे, लेकिन पार्टी ने संदेश दिया कि परिवारवाद से दूरी बनानी होगी। डा. रमन सिंह बेहद लोकप्रिय चेहरा हैं, लेकिन बेटे को टिकट न मिलने के बाद उनके चेहरे की लोकप्रियता का कितना फायदा संतोष पांडेय को मिल सकेगा, ये तो 4 जून को पता चलेगा।
देखे चुनाव चालीसा
भूपेश बघेल का यह तीसरी बार लोकसभा चुनाव होगा। 2004 में उन्होंने दुर्ग और 2009 का रायपुर सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। इन दोनों चुनावों में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। अब पार्टी ने उन्हें राजनांदगांव से प्रत्याशी बनाया है। यह सीट कांग्रेस के लिए हमेशा से मुश्किलों भरी रही है। पूर्व मुख्यमंत्री मोतीलाल बोरा के बाद से यहां कांग्रेस का कोई नेता चुनाव नहीं जीत पाया। बघेल दुर्ग जिले की पाटन सीट से विधायक हैं। भाजपा ने उनके खिलाफ दुर्ग सांसद विजय बघेल उतारा था, लेकिन भूपेश को मात नहीं दे पाए।
बात करे 2019 के चुनाव में राजनांदगांव सीट पर भाजपा प्रत्याशी संतोष पांडेय ने जीत हासिल की थी. उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी भोलाराम साहू को एक लाख 11 हजार 966 मतों से हराया था. बीजेपी के संतोष पांडे को 6.62 लाख वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस के भोलाराम साहू को 5.50 लाख वोट मिले. बीएसपी की रविता धुव्र 17,145 मत हासिल कर तीसरे स्थान पर रही थी.
जातिगत समीकरण की बात की जाए तो राजनांदगांव लोकसभा सीट पर पिछड़ा वर्ग की आबादी अधिक है. यहां साहू समाज का दबदबा है. आदिवासी और लोधी समाज का भी वर्चस्व है. 26 जनवरी 1973 को दुर्ग से अलग होकर राजनांदगांव जिला अस्तित्व में आया. तब इसमें कवर्धा भी शामिल था, जो अब अलग जिला बन गया है. राजनांदगांव लोकसभा के अंतर्गत विधानसभा की कुल आठ सीटें आती हैं. इनमें खैरागढ़, डोंगरगढ़, राजनांदगांव, डोंगरगांव, खुज्जी, मोहला-मानपुर, कवर्धा और पंडरिया शामिल हैं.
देखे चुनाव चालीसा
खैरागढ़ राजपरिवार के दम पर कांग्रेस का कभी यहां दबदबा रहा था.यहां से सांसद रहीं पद्मावती देवी ने अपने एक महल को संगीत विश्वविद्यालय के लिए दान दे दिया था.इसी महल में खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, जिसे एशिया की पहली संगीत यूनिवर्सिटी कहा जाता है. यह महल उनकी दिवंगत बेटी इंदिरा के नाम पर था. इंदिरा नाम की वजह से कुछ लोग इसे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भी जोड़ते हैं, जबकि इस महल से उनका कोई सरोकार नहीं था.कांग्रेस ने नौ बार और बीजेपी/जनता पार्टी आठ बार इस सीट पर जीत हासिल कर चुकी हैं. 1996 के बाद से अधिकांश चुनाव में बीजेपी को जीत हासिल हुई है. खास बात है कि बीजेपी ने 1998 के बाद हर बार मौजूदा सांसद का टिकट काट दिया. इस तरह एक बार भी उम्मीदवार रिपीट नहीं किया और हर बार एक नया उम्मीदवार यहां से जीतकर लोकसभा पहुंचा है. इस लोकसभा सीट के तहत राजनांदगांव और कवर्धा दो जिलों की आठ विधानसभा सीट्स आती है. 2023 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने राजनांदगांव ज़िले की 6 विधानसभा सीट्स में से पांच पर जीत हासिल की है, जबकि कवर्धा की दोनों सीटों पर बीजेपी ने कब्जा जमाया.राजनांदगांव ज़िले में बीजेपी के लिए एकमात्र सीट रमन सिंह ने जीती हैं. करीब 18 लाख मतदाताओं वाली इस सीट पर सबसे ज्यादा 4 लाख साहू समाज के वोटर है. इसके अलावा कुर्मी, यादव और अन्य मिलाकर क़रीब 10 लाख ओबीसी मतदाता है. हालांकि, यहां के मतदाताओं ने कभी भी जातिगत आधार पर वोटिंग नहीं की.
देखे चुनाव चालीसा
राजनांदगांव सीट में बीजेपी की तरफ से हर बार उम्मीदवार बदलने की परंपरा रही पर इस चुनाव में यह परंपरा भी टूट गई,बीजेपी ने पिछले बार के संतोष पांडे को ही मैदान में उतारा है तो उधर कांग्रेस भूपेश बघेल पर दांव खेल चुकी है अब देखना यह है कि छत्तीसगढ़ के इस हाट सीट पर बैठने वाला बिग बोस कौन होगा इसके लिए हमें इंतजार करना होगा 4 जून का…
Rajnandgaow Loksabha Highlights
📌1957 और 1962 में हुए पहले दो चुनाव में खैरागढ़ राजपरिवार का था दबदबा
📌राजा वीरेंद्र बहादुर सिंह ने कांग्रेस के टिकट पर जीत हासिल की थीं
📌1967 में कांग्रेस ने राजपरिवार से ही पद्मावती देवी को टिकट दिया
📌1971 के चुनाव में कांग्रेस ने मुंबई के बिजनेसमैन रामसहाय पांडे मैदान में उतारा
📌टिकट नहीं मिलने से ख़फ़ा पद्मावती देवी ने एनसीओ पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा
📌इंदिरा लहर के सामने पद्मावती देवी टिक नहीं सकीं और चुनाव हार गई
📌रामसहाय पांडे को आपातकाल विरोधी लहर में पटखनी मिली
📌रामसहाय पांडे को जनता पार्टी के मदन तिवारी ने शिकस्त दी थी
📌1980 और 1984 में एक बार फिर कांग्रेस ने राजपरिवार पर जताया भरोसा
📌राजपरिवार से शिवेंद्र बहादुर सिंह को कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया
📌दोनों ही चुनाव में मतदाताओं ने राजपरिवार पर भरोसा जताया
📌1989 में शिवेंद्र बहादुर सिंह जीत की हैट्रिक से चूक गए
📌उन्हें बीजेपी के धर्मपाल सिंह गुप्ता ने पराजित किया था
📌1991 में कांग्रेस ने एक बार फिर शिवेंद्र बहादुर सिंह पर भरोसा जताया
📌मतदाताओं ने उन्हें दो साल के गैप के बाद फिर लोकसभा भेज दिया
📌1996 में शिवेंद्र सिंह ने पांचवी बार यहां से चुनाव लड़ा.
📌वाजपेयी लहर में बीजेपी के अशोक शर्मा पर यहां से बाजी मारी
📌पहले 1998 में कांग्रेस ने दो बार के मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा पर दांव लगाया
📌मोतीलाल वोरा ने बीजेपी के अशोक वर्मा को 52 हज़ार के अन्तर से पराजित किया
📌 13 महीने की वाजपेयी सरकार गिरने के बाद 1999 में एक बार फिर चुनाव हुआ
📌यह चुनाव रमन सिंह के लिए लाइफ चेजिंग मोमेंट बन गया.
📌विधानसभा चुनाव हराने वाले रमन सिंह को पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया
📌रमन सिंह मोतीलाल बोरा के हराकर लोकसभा पहुँचे, सरकार में मंत्री भी बने
📌2007 में हुए लोकसभा उपचुनाव को छोड़कर हर चुनाव में यहाँ बीजेपी ने जीत हासिल की
📌2004 में देश में कांग्रेस की सरकार बनी, लेकिन राजनांदगांव में बीजेपी ही रही
📌बीजेपी के प्रदीप गांधी इस सीट से चुने गए.
📌साल भर बाद ही प्रदीप गांधी कोबरा पोस्ट के स्टिंग में फंस गए
📌प्रदीप गांधी सहित 11 सांसदों को निष्कासित किया गया था
📌2007 में हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने राजपरिवार के देवव्रत सिंह पर दांव लगाया.
📌वो राजपरिवार से चुने गए सातवें सांसद थे. उन्होंने बीजेपी के लीलाराम भोजवानी को हराया
📌2009 में देश में एक बार फिर मनमोहन सिंह सरकार बनी,
📌लेकिन राजनांदगांव में फिर कमल खिला
📌बीजेपी के मधुसूदन यादव ने देवव्रत सिंह को करारी शिकस्त दी
📌उनकी जीत का अंतर क़रीब एक लाख 20 हजार वोट था
📌बीजेपी ने 2014 और 2019 में उम्मीदवार बदलने का सिलसिला जारी रखा
📌2014 में अभिषेक सिंह को और 2019 में संतोष पांडेय को उम्मीदवार बनाया
📌बीजेपी ने उम्मीदवार बदलने की परंपरा को विराम से संतोष पांडेय की फिर मैदान में उतारा
📌कांग्रेस की तरफ से इस बार पूर्व सीएम भूपेश बघेल मैदान में