आधुनिकता की दौड़ में कम हो गई नंगाड़ों की शोर : बच्चों की टिनकी गूंज रही, न रमझाझर की थाप, कभी गांव की चौपालों पर फाग की महफिल जमती थीं, हर गली में होती थीं अलग टोली
केशव पाल @ तिल्दा-नेवरा | होली का त्यौहार आने को है लेकिन माहौल होली को लेकर फीका नजर आ रहा है। न कहीं नंगाड़े की थाप सुनाई दे रही हैं और न कहीं फाग गीतों की गूंज। पहले बसंत पंचमी से ही गलियों में नंगाड़ो की थाप गूंजने लगती थी। लेकिन इस वर्ष अब तक क्षेत्र में नंगाड़ा बिकना शुरू भी नहीं हुआ है। होली के पखवाड़े भर पहले से ही गांवों व शहरों में फाग गीत नंगाड़ें की धुन के साथ सुनाई देती थी। लेकिन इस साल कहीं भी नंगाड़े की आवाज सुनाई नहीं दे रही है। रंगों का पर्व होली को अब कुछ ही दिन शेष रह गया है। फिर भी शहर से लेकर देहात तक फागुन का रंग नजर नहीं आ रहा। हालात यह है कि मोहल्लों में नंगाड़ों की धुन से लेकर बाजारों में भी त्यौहारी रौनक गायब है। होलिका दहन को लेकर युवाओं की तैयारियां भी अभी तक फीकी हैं। पहले सार्वजनिक स्थलों और चौक-चौराहे में शाम ढलते ही नंगाड़े की थाप सुनाई देता था। अब यह दब सी गई है। अभी तक बाजारों में न तो रंग गुलाल और पिचकारी की दुकानें सजी है। न कहीं नंगाड़े बिक रहे हैं। न तो बच्चों की टिनकी की धुन गूंज रही है और न ही युवाओं की रमझाझर नंगाड़े की थाप। आधुनिकता की अंधी दौड़ में होली के रंग की चमक फीकी पड़ती जा रही है। नंगाड़े की थाप पर होली का सुरूर चढ़ता नजर नहीं आ रहा है। आज से दशक भर पहले फागुन माह लगते ही नंगाड़ों की थाप पर जगह-जगह फाग की महफिल जमती थी। लेकिन अब गांव की चौपालें सूनी पड़ी रहती है। न कहीं नंगाड़ों की थाप सुनाई दे रही है और न ही होली त्यौहार जैसा माहौल नजर आ रहा है। युवाओं का फाग गायन परंपरा में कोई रूचि नहीं रह गया है। इसलिए यह परंपरा विलुप्ति के कगार पर है।
गांव की चौपालें सुनी हो चली, फाग गीत सुनने तरस रहे कान
गांवों की चौपालों पर कभी महीने भर तक फाग की महफिलें सजती थी और फाग गीतों के बोल गूंजने लगते थे। मगर अब शायद ही किसी गांव में दिख जाए तो इत्तेफाक होगा। युवाओं की भी मानसिकता बदल गई है। वे इन सब चीजों को समय की बर्बादी समझते हैं। ग्रामीण अंचलों में होली के एक माह पहले से ही नंगाड़ा एवं फाग गीत के साथ होली मनाने के लिए युवा घरों से लकड़ी चुराकर या पेड़ काटकर होली के लिए होलिका इकट्ठा करते थे, लेकिन आज के युवा वर्ग किसी भी त्यौहार में रुचि नहीं दिखाते। अब समय के साथ लोगों के विचार भी बदल रहे हैं और परंपरा समाप्ति की ओर है। लोगों के कान अब फाग गीत सुनने के लिए तरस गए हैं। फाग गायन की कला अपनी अस्तित्व खोती जा रही है। जिससे बुजुर्गों में अच्छा खासा मलाल है। अब होली केवल पारंपरिक त्यौहार बनकर रह गया है। इधर, गांवों में भी होली को लेकर पहले जैसा उत्साह नजर नहीं आ रहा। कुछ वर्षों पहले तक हर गली में फाग गीत गाने वालों की अलग टोली होती थी।
पहले चौक-चौक में गूंजती थी नंगाड़ें की थाप, अब डीजे का जमाना
पहले होली का माहौल बनना बसंत पंचमी के बाद से शुरू हो जाता था। हर गली-मोहल्लों में फाग गीत गाते लोग दिख पड़ते थे। चौक-चौक में नंगाड़ें की थाप सुनाई देती थी। युवाओं को अब फाग गीतों में कोई दिलचस्पी नहीं है। अब युवा पीढ़ी कैसेट और डीजे बजाकर फूहड़ गीतों में थिरकते हुए होली मना रहे हैं। आधुनिकता के रंग मे अब रंगों का त्यौहार भी फीका पड़ गया है। अभी बोर्ड कक्षा दसवीं और बारहवीं की परीक्षा चल रही है। इस कारण बच्चे होली की तैयारियों से दूर परीक्षा की तैयारियों में जुटे हुए है। कॉलेज की भी परीक्षा होने के कारण युवा रंग गुलाल से दूरी बनाते हुए परीक्षा की तैयारी में व्यस्त हैं। इस कारण भी होली का माहौल बनता नजर नहीं आ रहा है।